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चलचित्र अधिनियम, 1952 (The Cinematograph Act, 1952)

चलचित्र अधिनियम, 1952 भारत में फिल्मों के प्रमाणीकरण और प्रदर्शन को विनियमित करने के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य फिल्मों की सामग्री की जाँच करना, उन्हें विभिन्न दर्शक वर्गों के लिए उपयुक्त प्रमाणपत्र देना, और सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की रक्षा करना है। यह अधिनियम फिल्मों के माध्यम से समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था।
भारत में फिल्मों के विनियमन की आवश्यकता 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही महसूस की जाने लगी थी। ब्रिटिश शासन के दौरान, सिनेमा के प्रभाव को लेकर चिंताएँ उठीं, जिसके परिणामस्वरूप 1918 में सिनेमेटोग्राफ अधिनियम लागू किया गया। हालाँकि, स्वतंत्रता के बाद, एक नए और व्यापक कानून की आवश्यकता महसूस हुई, जिसके फलस्वरूप 1952 में चलचित्र अधिनियम अस्तित्व में आया।

1981 का संशोधन: अपील ट्रिब्यूनल की स्थापना और प्रमाणपत्रों के नए वर्गीकरण को शामिल किया गया।
2017 का संशोधन: ट्रिब्यूनल के सदस्यों की नियुक्ति और सेवा शर्तों से संबंधित प्रावधान जोड़े गए।
चलचित्र अधिनियम, 1952 भारतीय सिनेमा के विनियमन का आधार है। यह अधिनियम फिल्म निर्माताओं और दर्शकों के बीच संतुलन बनाते हुए सामाजिक मूल्यों की रक्षा करता है। हालाँकि, यह समय-समय पर विवादों का केंद्र भी रहा है, विशेष रूप से फिल्मों की सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े मुद्दों पर। फिर भी, यह अधिनियम भारतीय सिनेमा को एक संरचित ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।

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