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दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय अधिनियम, 1922 (The Delhi University Act, 1922)

दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम, 1922 भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जिसने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसके संचालन, प्रशासन तथा शैक्षणिक ढांचे को परिभाषित किया। यह अधिनियम ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में पारित हुआ था और इसका उद्देश्य एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना करना था जो शिक्षा, अनुसंधान और ज्ञान के प्रसार को बढ़ावा दे। इस अधिनियम के माध्यम से विश्वविद्यालय को एक स्वायत्त संस्था का दर्जा दिया गया, जिसमें शिक्षकों और छात्रों के लिए समान अवसर सुनिश्चित किए गए।
इस अधिनियम में विश्वविद्यालय के उद्देश्यों, संरचना, प्रशासनिक अधिकारियों, शैक्षणिक प्रक्रियाओं और वित्तीय प्रबंधन को विस्तार से परिभाषित किया गया है। इसमें विश्वविद्यालय के कुलाधिपति, कुलपति, प्रतिकुलपति, कोषाध्यक्ष, और अन्य पदाधिकारियों की भूमिकाएं निर्धारित की गई हैं। साथ ही, इसमें विश्वविद्यालय की विभिन्न समितियों जैसे सभा, कार्य परिषद, विद्या परिषद, और संकायों के कार्यों और अधिकारों का उल्लेख किया गया है।
ऐतिहासिक रूप से, दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना भारत में उच्च शिक्षा के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम थी। यह अधिनियम समय-समय पर संशोधित होता रहा है, जैसे कि 1943, 1952, 1961, और 1972 के संशोधनों के माध्यम से, ताकि इसे समकालीन शैक्षणिक और प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जा सके। इन संशोधनों में महाविद्यालयों और छात्रावासों के प्रबंधन, परीक्षा प्रणाली, और शिक्षकों की नियुक्ति से संबंधित प्रावधानों को अद्यतन किया गया।

इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें शिक्षा के क्षेत्र में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल किया गया। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विश्वविद्यालय सभी जाति, धर्म, लिंग और पंथ के लोगों के लिए खुला होगा और किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह प्रावधान भारतीय संविधान के मूल्यों के अनुरूप है और शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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