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माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (The Arbitration and Conciliation Act, 1996)

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 भारत में मध्यस्थता (Arbitration) और सुलह (Conciliation) से संबंधित विवादों के निपटारे के लिए एक महत्वपूर्ण कानून है। इस अधिनियम को संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय व्यापार कानून आयोग (UNCITRAL) द्वारा 1985 में अपनाए गए मॉडल कानून और 1980 में अपनाए गए सुलह नियमों के आधार पर तैयार किया गया था। यह अधिनियम पुराने अधिनियमों, जैसे कि 1940 का मध्यस्थता अधिनियम, को प्रतिस्थापित करने के लिए बनाया गया था, जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं थे और विवाद निपटान में देरी तथा न्यायालयों के हस्तक्षेप की अधिक संभावना रखते थे।
इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य भारत में मध्यस्थता प्रक्रिया को सुव्यवस्थित, कुशल और पारदर्शी बनाना है। यह घरेलू, अंतरराष्ट्रीय और वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिए एक समग्र ढांचा प्रदान करता है। अधिनियम का लक्ष्य विवादों का त्वरित, निष्पक्ष और कम खर्चीला निपटारा सुनिश्चित करना है, जिससे न्यायालयों का बोझ कम हो और पक्षकारों को एक सुगम प्रक्रिया मिल सके।

2015 के संशोधन: इसमें मध्यस्थता प्रक्रिया को और अधिक कुशल बनाने के लिए समय सीमा निर्धारित की गई (धारा 29A), त्वरित मध्यस्थता (Fast-track Arbitration) का प्रावधान जोड़ा गया, और मध्यस्थता संस्थाओं के गठन को विनियमित किया गया।
2019 के संशोधन: भारतीय मध्यस्थता परिषद (Indian Arbitration Council) की स्थापना की गई, जो मध्यस्थता संस्थाओं और मध्यस्थों के मानकों को विनियमित करेगी।
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 भारत में विवाद निपटान के लिए एक आधुनिक और प्रभावी ढांचा प्रदान करता है। यह अधिनियम अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है और विवादों के शीघ्र निपटान को बढ़ावा देता है। हालांकि, कुछ चुनौतियाँ, जैसे कि न्यायालयों का अत्यधिक हस्तक्षेप और प्रक्रिया में देरी, अभी भी बनी हुई हैं, जिन्हें भविष्य के संशोधनों में दूर करने की आवश्यकता है।

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