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वाद मूल्‍यांकन अधिनियम, 1887 (The Suits Valuation Act, 1887)

वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1887 (Suit Valuation Act, 1887) भारत में न्यायालयों की अधिकारिता (jurisdiction) से संबंधित वादों के मूल्यांकन के तरीकों को निर्धारित करने के लिए बनाया गया एक महत्वपूर्ण कानून है। इस अधिनियम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि वादों की अधिकारिता का निर्धारण उनके मूल्य (value) के आधार पर सही ढंग से किया जाए, ताकि न्यायालयों के बीच अधिकार क्षेत्र को लेकर कोई विवाद न हो। यह अधिनियम 11 फरवरी, 1887 को पारित किया गया था और इसे 1887 के अधिनियम संख्या 7 के रूप में जाना जाता है।
19वीं शताब्दी के दौरान, ब्रिटिश भारत में न्यायिक प्रणाली को सुव्यवस्थित करने के लिए कई कानून बनाए गए। उस समय, न्यायालयों की अधिकारिता का निर्धारण वाद के मूल्य के आधार पर किया जाता था, जिससे कभी-कभी भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। इस समस्या को दूर करने के लिए वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1887 लाया गया। यह अधिनियम न्यायालय शुल्क अधिनियम, 1870 (Court Fees Act, 1870) के साथ मिलकर काम करता है, जो वादों के लिए शुल्क निर्धारित करता है।
धारा 11: यदि किसी वाद या अपील में मूल्यांकन सही ढंग से नहीं किया गया है, तो अपील न्यायालय इसकी समीक्षा कर सकता है।
धारा 12: इस अधिनियम का प्रभाव उन वादों पर नहीं होगा जो इसके लागू होने से पहले दायर किए गए थे।
वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1887 ने भारतीय न्यायिक प्रणाली में एकरूपता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे पहले, विभिन्न क्षेत्रों में वादों के मूल्यांकन के लिए अलग-अलग मानक थे, जिससे न्यायालयों की अधिकारिता को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती थी। इस अधिनियम ने इन समस्याओं को दूर करने में मदद की और न्यायिक प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाया।
समय के साथ, इस अधिनियम में कई संशोधन किए गए हैं, जैसे कि पंजाब, मध्य प्रदेश, और अन्य राज्यों में इसे विभिन्न समयों पर लागू किया गया। आज भी, यह अधिनियम भारतीय न्यायिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और वादों के मूल्यांकन तथा न्यायालयों की अधिकारिता को निर्धारित करने में इसकी भूमिका अहम बनी हुई है।

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